2- पृथ्वी में तीन रत्न हैं - जल, अन्न और सुभाषित, किन्तु मूर्ख जन पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न समझते हैं।
3- वन में न तो सिंह का राज्यभिषेक होता है न ही उसे राजा घोषित करने के लिए कोई संस्कार (उत्सव)। सिंह स्वयं के सत्त्व (गुण) और विक्रम के द्वारा जंगल का राजा बन जाता है।
4- वन में आग लगने पर जो हवा का झौंका उसको बढ़ाने के लिए उसका सहायक बन जाता है वही हवा का झौंका छोटे से दीपक की ज्वाला को बुझा देता है, अर्थात सबल के सभी साथी होते हैं।
5- विद्या, धन और शक्ति जहाँ एक खल (दुर्जन) को विवादी, अहंकारी और अत्याचारी बनाते हैं वहीं वे एक साधु (सज्जन) को ज्ञानी, दानी और रक्षक बनाते हैं।
6- दुर्बल का बल राजा होता है, बालक (शिशु) का बल उसका रोना होता है, मूर्ख का बल मौन (कुछ बोलकर अपनी मूर्खता प्रकट करने के स्थान पर चुप रह कर अपनी मूर्खता छिपाना) होता है और चोर का बल असत्य भाषण (झूठ बोलना) होता है।
7- देवी-देवताओं को घोड़े की नहीं, हाथी की नहीं, व्याघ्र (सिंह) की नहीं, मात्र बकरे की बलि दी जाती है, कमजोर की रक्षा भगवान भी नहीं करते।
8- व्यास की कीर्तिस्वरूप अठारह पुराणों का सार है - परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को पीड़ा देना ही पाप। (कहा भी गया है \"परहित सरिस धरम नहि भाई, परपीड़ा सम नहि अधिकाई।)
9- ईश्वर के द्वारा निर्मित हिमालय से इंदु सरोवर (हिन्द महासागर) तक के क्षेत्र को हिन्दुस्तान के नाम से जाना जाता है।
10- समस्त पृथ्वी के वासियों को इस देश में जन्मे पूर्वपुरुषों (ऋषि मुनियों) से सच्चरित्रता के साथ जीवनयापन की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
अग्निः शेषं ऋणः शेषं शत्रुः शेषं तथैव च।
पुनः पुनः प्रवर्धेत तस्मात् शेषं न कारयेत्॥१॥
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलं अन्नं सुभाषितम्।
मूढ़ैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते॥२॥
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥३॥
वनानि दहतो वन्हेः सखा भवति मारुतः।
स एव दीपनाशाय कृशे कस्यास्ति सौहृदम॥४॥
विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोः विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥५॥
दु्र्बलस्य बलं राजा बालानां रोदनं बलम्।
बलं मूर्खस्य मौनित्वं चोराणाम् अनृतम् बलम्॥६॥
अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च।
अजापुत्रं बलिं दद्यात देवो दर्बलघतकः॥७॥
अष्टादशपुराणानां सारं व्यासेन कीर्तितम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥८॥
हिमालयं समारभ्य यावत् इंदु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥९॥
एतद्देशप्रसूतस्य सकशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥१०॥
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